क्रिया
Verb Definition :जिस पद से किसी कार्य के करने या होने का बोध होता है, उसे क्रिया कहते हैं । जैसे- पढ़ना, जाना, लिखना, दौड़ना आदि।
क्रिया के मूल रूप को धातु कहते हैं। जैसे – पढ़, जा, लिख, दौड़
क्रिया के कितने भेद होते हैं ?
क्रिया के भेदों में से कुछ प्रमुख भेदों पर यहाँ चर्चा की जा रही हैं।
1.रचना के आधार पर क्रिया
रचना के आधार पर क्रिया दो प्रकार की है।
(i) मूल क्रिया : जैसे – पढ़ना, देखना, दौड़ना आदि
(II) यौगिक क्रिया : जैसे – पढ़ सकना, देख लेना दौड़ सकना आदि।
संयुक्त क्रिया और प्रेरणार्थक क्रिया इसके प्रमुख भेद हैं।
2. कर्म के आधार पर क्रिया
कर्म के आधार पर क्रिया के तीन भेद होते हैं।
(i) सकर्मक
(ii) द्विकर्मक
(ii) अकर्मक
सकर्मक क्रिया – जिस वाक्य में कर्म का आना या उसकी संभावना बनी रहना सुनिश्चित है, उस वाक्य की क्रिया को सकर्मक क्रिया कहते हैं ।
जैसे- सुरेश पत्र लिखता है ।
इस वाक्य में लिखने वाल ‘सुरेश‘ कर्ता है। लिखा जाने वाला ‘पत्र’ कर्म है। अतः ‘लिखना’ क्रिया सकर्मक है। इसी प्रकार पढ़ना, देखना, खाना ,पीना, काटना, खोदना गाना आदि सकर्मक क्रियाएँ हैं।
द्विकर्मक क्रिया – जिस वाक्य में दो कर्म आते हैं, उस वाक्य की क्रिया को द्विकर्मक क्रिया कहते हैं ।
जैसे- शिक्षक ने छात्र को इतिहास पढ़ाया । यहाँ दो प्रश्न पूछने पर दो उत्तर मिलते है |
शिक्षक ने किसको पढ़ाया ? – छात्र को ।
शिक्षक ने छात्रको क्या पढ़ाया ? – इतिहास
अर्थात् छात्र को और इतिहास दो कर्म हैं।
दो कर्म लेने वाली क्रिया को द्विकर्मक क्रिया कहते हैं। इसी प्रकार कहना पूछना देना, खिलाना आदि द्विकर्मक क्रियाएँ हैं।
अकर्मक क्रिया : अकर्मक क्रिया अपने साथ कर्म नहीं ले सकती। जैसे – बच्चे दौड़ते हैं। इस वाक्य में बच्चे क्या दौड़ते हैं या बच्चे किसको दौड़ते हैं – प्रश्न पूछने पर कोई उत्तर नहीं मिलता।
इसी प्रकार आना जाना, भागना, तैरना, कूदना, रोना, हँसना, उठना बैठना आदि अकर्मक क्रियाएँ हैं।
3. क्रिया की पूर्णता अपूर्णता के आधार पर किया
क्रिया की पूर्णता या अपूर्णता के आधार पर क्रियाएँ दो प्रकार की हैं –
(i) समापिका क्रिया
(ii) असमापिका कया ।
(i) समापिका क्रिया वाक्य के अंत में आती है और वाक्य की समाप्ति की सूचना देती है |
जैसे – वे शिक्षक हैं। पिताजी दफ्तर गए हैं।
(ii) असमापिका क्रिया से वाक्य की समाप्ति का बोध नहीं होता ।
जैसे – मैंने घर लौटकर खाना खाया।
बच्ची मुझे देखते ही रो पड़ी।
भाषा बहता नीर है।
सुनी हुई बात पर विश्वास न करो।
संयुक्त क्रिया
दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनने वाली क्रिया को संयुक्त क्रिया कहते हैं। इससे अर्थ में अधिक स्पष्टता आ जाती है। इसकी प्रथम क्रिया को मुख्य क्रिया और बाद में आने वाली क्रिया को सहायक क्रिया कहते हैं। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं –
वर्षा थम चुकी है। वह पढ़ नहीं सका । शिशु रोने लगा हम रोज स्कूल जाया करते हैं। तुम्हें सच बोलना चाहिए। हमें मोमबत्ती जलाकर पढ़ना पड़ा। उसे जाने दो। अचानक चिड़िया बोल उठी। तुम क्या करना चाहते हो ? लड़के खेलते रहे। गिलास गिर पड़ा। तुम क्या कर बैठे ?
वाच्य
वाक्य में क्रिया की तीन स्थितियाँ होती हैं। क्रिया कभी कर्ता का अनुसरण करती है तो कभी कर्म का, कभी कर्ता या कर्म का अनुसरण न करके स्वतंत्र रहती है। इन स्थितियों को वाच्य कहते हैं। यानी वाच्य क्रिया के उस रूप परिवर्तन को कहते हैं,
जिससे पता चले कि वाक्य में कर्ता, कर्म या क्रिया (भाव) – इन तीनों में से किसकी प्रधानता है।
अतः वाच्य तीन प्रकार के होते हैं।
(i) कर्तृवाच्य,
(ii) कर्मवाच्य
(ii) भाववाच्य |
(i)कर्तृवाच्य – कर्तृवाच्य में कर्ता ही वाक्य का उद्देश्य या केन्द्र है। वाक्य में उसकी प्रधानता रहती है ।
जैसे – कमला लिखती है। घोड़ा दौड़ता है। गाड़ी आती है। पंखा चलता है।
(ii)कर्मवाच्य – कर्मवाच्य में कर्म की प्रधानता रहती है। कर्म वाच्य केवल सकर्मक क्रिया का होता है।
जैसे-पुस्तक पढ़ी जाती है।
कपड़ा सिला जाता है।
चोर पकड़ा गया।
मुझसे बासी रोटी नहीं खाई जाएगी ।
कर्म वाच्य में सामान्यतः कर्ता अनुपस्थित रहता है। अगर कर्ता आए तो उसके साथ ‘से’ या ‘द्वारा’ का प्रयोग होता है। कर्म सामान्यतः परसर्ग रहित होता है। मुख्य क्रिया के साथ ‘जाना’ सहायक क्रिया अनिवार्य रूप से आती है।
भाववाच्य – भाववाच्य में क्रिया का भाव प्रधान होता है। भाववाच्य के वाक्य में क्रिया अकर्मक होती है। सहायक क्रिया जाना’ आती है। क्रिया पुंलिंग, एकवचन और अन्य पुरुष में रहती है।
जैसे- मुझसे चला नहीं जाता। रोगी से उठा नहीं जाता ।
उससे दौड़ा नहीं जाएगा। इस धूप में अब नहीं चला जाता ।
प्रयोग
प्रयोग का अर्थ है – ‘अन्विति’ । वाक्य में क्रिया का रूप कर्ता, कर्म या भाव के अनुसार होता है। कर्ता के अनुसार क्रिया का रूप बनने से उसे ‘कर्तरि प्रयोग’ कहते हैं । कर्म के अनुसार क्रिया का रूप बनने से उसे ‘कर्मणि प्रयोग’ कहते हैं। क्रिया कर्ता या कर्म के अनुसार न होकर स्वतंत्र (अन्यपुरुष एकवचन, पुलिंग) होने से उसे ‘भावे प्रयोग’ कहते हैं ।
जैसे –
गोपाल पढ़ता है (कर्तृवाच्य कर्तरि प्रयोग)
गोपाल ने पाठ पढ़ा (कर्तृवाच्य कर्मणि प्रयोग)
गोपाल ने गोविन्द को पढ़ाया (कर्तृवाच्य भावे प्रयोग)
कहानी पढ़ी गयी (कर्मवाच्य कर्मणि प्रयोग)
एकांकी पढ़ा गया। (कर्मवाच्य कर्मणि प्रयोग )
सड़े आमों को फेंका गया (कर्मवाच्य भावे प्रयोग)
मुझसे तैरा नहीं जाता। (भाववाच्य भावे प्रयोग)
गोपाल ने कहानी पढ़ी (कर्तृवाच्य कर्मणि प्रयोग)
गोपाल ने पढ़ा ( कर्तृवाच्य भावे प्रयोग)
प्रेरणार्थक क्रिया
जिस क्रिया से यह स्पष्ट होता है कि कर्ता दूसरे की प्रेरणा से कार्य करता है उसे प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं। इसके दो रूप होते – प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया और द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया ।
● प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया : इसमें कर्ता प्रत्यक्ष रूप से भाग लेता
• द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया : इसमें कर्ता प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेता। उसकी प्रेरणा से कोई दूसरा काम करता है।
प्रेरणा देनेवाले को प्रेरक कर्ता कहते हैं। प्रेरणा से काम करनेवाले को प्रेरितकर्ता कहते हैं। जैसे –
मालिक नौकर से काम करवाता है।
(यहाँ मालिक प्रेरक कर्ता है और नौकर प्रेरित कर्ता है।)
प्रेरणार्थक क्रियाओं के रूप परिवर्तन के कुछ नियम :
(1) मूलधातु में ‘आना’ जोड़ने से प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया और ‘वाना’ जोड़ने से द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया बनती है, जैसे ।
मूलधातु | प्रथम प्रेरणार्थक | द्वितीय प्रेरणार्थक |
---|---|---|
उग | उगाना | उगवाना |
उड़ | उड़ाना | उड़वाना |
खिल | खिलाना | खिलवाना |
गिर | गिराना | गिरवाना |
चल | चलाना | चलवाना |
दौड़ | दौड़ाना | दौड़वाना |
पढ़ | पढ़ाना | पढ़वाना |
लिख | लिखाना | लिखवाना |
सुन | सुनाना | सुनवाना |
(2) कुछ मूल धातुओं की प्रथम मात्रा का परिवर्तन करके (आ < अ, ई/ए >इ . ऊ/ओ > उ) और फिर ‘आना’ जोड़कर प्रथम प्रेरणार्थक तथा ‘वाना’ जोड़कर द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया बनायी जाती है, जैसे –
मूलधातु | प्रथम प्रेरणार्थक | द्वितीय प्रेरणार्थक |
---|---|---|
ऒढ़ | उढ़ाना | उढ़वाना |
काट | कटाना | कटवाना |
खेल | खिलाना | खिलवाना |
घूम | घुमाना | घुमवाना |
घोल | घुलाना | घुलवाना |
छोड़ | छुड़ाना | छुड़वाना |
जाग | जगाना | जगवाना |
जित | जिताना | जितवाना |
डूब | डुबाना | डुबवाना |
नाच | नचाना | नचवाना |
पीस | पिसाना | पिसवाना |
बोल | बुलाना | बुलवाना |
लेट | लिटाना | लिटवाना |
(3) स्वरांत धातुओं की प्रथम मात्रा का परिवर्तन करके ( आ / ई / ए >इ, ऊ /ओ> उ) और फिर ‘ लाना ‘ जोड़कर प्रथम प्रेरणार्थक तथा ‘ लवाना ‘ जोड़कर द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया बनायी जाती है, जैसे –
मूलधातु | प्रथम प्रेरणार्थक | द्वितीय प्रेरणार्थक |
---|---|---|
खा | खिलाना | खिलवाना |
छू | जिलाना | छुलवाना |
जी | जिलाना | जिलवाना |
दे | दिलाना | दिलवाना |
धो | धुलाना | धुलवाना |
नहा | नहलाना | नहलवाना |
पी | पिलाना | पिलवाना |
रो | रुलाना | रुलवाना |
सी | सिलाना | सिलवाना |
सो | सिलाना | सुलवाना |
(4) कुछ धातुओं के दो-दो रूप बनते हैं, जैसे-
मूलधातु | प्रथम प्रेरणार्थक | द्वितीय प्रेरणार्थक |
---|---|---|
कह | कहाना / कहलाना | कहवाना / कहलवाना |
देख | दिखाना / दिखलाना | दिखवाना / दिखलवाना |
बैठ | बिठाना/ बिठलाना | बिठवाना/ बिठलवाना |
सीख | सिखाना सिखलाना | सिखवाना/ सिखलवाना |
(5) कुछ क्रियाओं के प्रथम प्रेरणार्थक रूप नहीं बनते,
जैसे – खेना, खोना, गाना, ढोना, पीटना भेजना लेना |
(6) कुछ क्रियाओं के कोई भी प्रेरणार्थक रूप नहीं बनते,
जैसे -आना, गवाँना, गरजना, चाहना, जँचना, जानना, जाना, पाना पछताना पुकारना, मिलना, रचना, सोचना,